Tuesday, October 29, 2019

दीपावली पर लगा गधों का मेला फिल्मी सितारों के नाम पर लगती है लाखों की बोली


रिपोर्ट - अनुपम दाहिया

दीपावली पर लगा गधों  का मेला

फिल्मी सितारों के नाम पर  लगती है लाखों की बोली
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दीपावली त्योहार में शाॅपिंग का जलवा ही अलग रहता है क्यो कि यह खरीदारी का प्रमुख त्यौहार माना जाता है। इस दौरान बाजार में ग्राहकों को आकर्षित करने के तमाम तरह के ऑफर और डिस्‍काउंट भी मिलते है लेकिन बहुत ही कम लोगो ने सुना होगा की जिस गधे को मूर्खता का पर्याय मान सभी लोग  गाली देते हैं उसका भी व्यापार होता है और उसके खरीदारों को बकायदे डिस्काउंट भी मिलता है 
           हर वर्ष की तरह इस वर्ष भी जिले की धर्मनगरी चित्रकूट में दिवाली के अवसर पर इन गधों और खच्चरों का मंदाकनी नदी के किनारे पड़े मैदान में 3 दिवसीय  ऐतिहासिक मेले का आयोजन शुरू हो चुका है दिवाली के दूसरे दिन से लगने वाले इस मेले की व्यवस्था बाकायदा नगर पंचायत द्वारा की जा चुकी  है जिससे नगर पंचायत चित्रकूट को गधा मेले से हर वर्ष लाखो रुपयों का राजस्व भी मिलता है ।       

             बताया गया है कि यहां देश के विभिन कोने से हजारो की संख्या में अलग अलग नस्लो के गधे खच्चरों को लेकर  व्यापारी आते है जहा 3 दिन में लाखो का व्यापार होता है। 
         इस गधा बाज़ार में आने वाले व्यापारियों को कभी मुनाफा तो कभी घाटा भी  उठाना पड़ता  है । क्यो कि  यह मांग और पूर्ति के बाज़ार पर निर्भर होता है । 

मुगल काल से हुई थी शुरूआत
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मिली जानकारी के अनुसार इस गधा मेला की शुरूआत  सर्व प्रथम मुगल काल में हुई थी। 
     कहते है  मुगल बादशाह औरंगजेब के सैन्य बल में घोड़ों की कमी होने पर जब  अफगानिस्तान से बिकने के लिए अच्छी नस्ल के खच्चर व गधे बुलबाए गए और उन्हे मुगलसेना के बेड़े में शामिल किया तो उनकी खरीदी इसी चित्रकूट के हाट से हुई थी। तब से चली आ रही इस ऐतिहासिक मेले की यह  अनवरत परम्परा आज भी जारी है और इसीलिए इस​ मेले का अत्यधिक ऐतिहसिक महत्व भी है।

देश के विभिन्न कोनो  से आते हैं लोग
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इस मेले में  मध्यप्रदेश के विभिन्न जिलों के अलावा उत्तर प्रदेश छत्तीसगढ, राजस्थान,पंजाब, हरियाणा, बिहार, जम्मू कश्मीर, से खच्चरों व गधों को खरीदने और बेचने के लिए व्यापारी आते हैं ।
       व्यापारियों की माने तो गधो व खच्चरों की यहा पर अच्छी खाशी कीमत मिलती है और चित्रकूट का ​मेला खरीदी एवं बिक्री के लिए सबसे अच्छा माना जाता है ।  हालांकि अब यहां भी कुछ आव्यवस्थाये होने लगी है जिससे व्यापारियो को परेसान भी होना पड़ता है

अभिनेताओं के नाम पर मिलती है अच्छी कीमत
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इस मेला में आने वाले गधों के नाम भी व्यापारी बड़े अजीबो गरीब ढंग के रखते है  जिनमे अक्सर फिल्म जगत के कलाकारों के नामो की बाहुलता होती है । उदाहरण के लिए सलमान,साहरुख,दीपिका,रणवीर,अक्षय,गोविंदा,मिथुन, सनी, हनी, महिमा,पारूल, नगीना, हीना, टाइगर, आदि जो किसी न किसी अभिनेताओं के नाम पर होते है। और फिर उनकी कीमत भी नाम एवं खूब सुरती के अनुसार आंकी जाती है। हालांकि नाम के साथ  इनकी कीमत में उम्र व दांतो की गिनती भी शामिल होती है ।


घास खिलाने से कष्ट दूर होता है
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 लोक मान्यता के आधार पर इस गधा मेले में आसपास के गाव के लोग यहां आकर गधो को घास खिलाने आते है । उनका मानना है कि  ऐसा करने से परिवार के सभी कष्ट दूर हो जायेगे व उन्हें पुण्य  मिलेगा

खतरे में मेले का अस्तित्व
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 धर्म नगरी चित्रकूट के मंदाकिनी नदी के तट पर लगने वाले इस ऐतिहासिक गधा मेले मे कम होती गधा व्यापारियो ,खरीदारों की संख्या व आधुनिक मशीनरी उपयोग  को मिलरहे बढ़ता  एवं वैश्विक मंदी के चलते उसका असर अब जानवरों के इस मेले में भी दिख रहा है। जिससे धीरे धीरे  मेले का अस्तित्व भी खतरे मे  पड़ता दिखाई देने लगा  है ।  यदि गधा मेले की इसी तरह अनदेखी  की जाती रही तो निकट भविष्य में यहा इस गधा मेला के खत्म होने मे बहुत देर नही लगेगी ।

Monday, October 28, 2019

किसानों को बड़ी राहत | रीवा के बाद अब सतना में भी ऐरा प्रथा पर रोक


किसानों को बड़ी राहत- 

रीवा के बाद अब सतना में भी ऐरा प्रथा पर रोक

     किसानों को कलेक्टर ने बड़ी राहत दे दी है। फसलों के लिए अभिशाप बन चुके ऐरा प्रथा पर कलेक्टर ने रोक लगा दी है।प्रतिबंधात्मक आदेश जारी कर दिया है। अब सड़कों पर आवारा मवेशी घूमते मिले तो पशु मालिकों पर पशु क्रूरता निवारण अधिनियम के तहत प्रकरण दर्ज होगा।

         जिला कलेक्टर डॉ सतेंद्र सिंह ने
आवारा पशुओं से फसलों की क्षति व सार्वजनिक स्थलों में पशुओं के यत्र तत्र घूमने के कारण होने वाले नुकसान की रोकथाम के उद्देश्य से प्रतिबंधात्मक आदेश जारी किया है। जिला दण्डाधिकारी ने आदेश में कहा है मवेशियों को बिना चरवाहे के छोड़ने की ऐरा प्रथा के कारण पशुओं के यहां-वहां घूमने से किसानों की फसलों को नष्ट  करते हैं। ऐसे में आक्रोशित किसानो के द्वारा पशुओं के साथ क्रूरता की जाती है। सड़क  में पशु दुर्घटनाग्रस्त होकर मृत अथवा घायल हो जाते हैं । इससे लोगों की आस्था प्रभावित होगी है। कानून व्यवस्था बिगड़ती है। इन स्थितियों को ध्यान में रखकर कलेक्टर ने प्रतिबंधात्मक आदेश जारी किया कर दिया है। इससे  लाखो आवारा पशु सड़कों से हटेंगे। किसानों की फसल बर्बाद होने से बचेगी।


फोटो-सड़क पर आवारा मवेशियों के जमघट

बाहरी हार्वेस्टर की इंट्री पर रोक।   

इसके साथ ही  पराली जलाने को पूर्णत: प्रतिबंधित कर दिया है। इसके अलावा हार्वेस्टर की अनुमति उसी शर्त पर दी जायेगी जब उसके साथ भूसा कटाई की मशीन जैसे रीपर का प्रयोग किया जाएगा। भूसा कटाई मशीन के बिना हार्वेस्टर का प्रयोग पूर्णत: प्रतिबंधित रहेगा।

घर-घर जाकर विधिवत होगा सर्वे

कलेक्टर ने पशुपालन विभाग के अधिकारी- कर्मचारी को पशु पालक के घर-घर जाकर पशुओं की टैगिंग के निर्देश दिए हैं। इससे यह पता चलेगा कि संबंधित पशु का मालिक कौन है। पालकों के पशुओं को ऐरा छोड़ने तथा दुर्घटना होने को उन पर पशु क्रूरता निवारण अधिनियम
के तहत प्रकरण दर्ज कराया जायेगा।

समाप्त होने की कगार पर गावो का अनुष्ठानिक ;बरेदी नृत्य;



समाप्त होने की कगार पर गावो का अनुष्ठानिक  "बरेदी नृत्य" 

    दीपावली कई पौराणिक मान्यताओं का पर्व है। एक ओर इसमें जहॉ राम के बनबास पूरा कर के अयोध्या वापस आने की कथा जुड़ी है ,वही श्री कृष्ण के इंद्र की पूजा के बजाय गोवर्धन पूजा से जुड़ा एक प्रसंग भी है।किन्तु तीसरी ओर आदिबासी समुदाय भी दीपावली से देव् अनुष्ठानी एकादसी तक अपना जन्त्र मंत्र जगाता है।उधर बौद्ध धर्मावलंबियों का भी एक तर्क है कि दीपावली को दीप जलाने की परम्परा सम्राट अशोक के कलिग बिजय के बाद शुरू हुई। इस तरह यह ऐसा त्यौहार है जिसमे अनेक लोक मान्यताएं समाहित है। पर अब कई परम्पराए धीरे धीरे समाप्त सी होती जा रही है। पर अभी कुछ ग्रामीण क्षेत्रो में देखने को मिल रही है ।

      पहले दीपावली से एकादसी तक यादव समुदाय पूरे 10 से 12 दिनों तक उत्सव मनाता था। गाव गाव उनकी टोली डोर पहन, पैरों में घुघरू बाध और हाथ में मोर पंख से बंधी लाठी लेकर बरेदी नृत्य करती । वे बीच बीच में लाठी युद्ध की अपनी पटे बाजी भी दिखाते जाते।  यह परम्परा छत्तीशगढ़ तक थी । उसे वहां राउत नाचा नाम से जाना जाता है।

फोटो- लाठी युद्ध 

        इस नृत्य में वे श्री कृष्ण के प्रेम प्रसंगों य दधी दान से सम्बंधित दिवाली का गीत भी गाते थे। उनका यह सारा अनुष्ठान देवरी जगाना नाम से जाना जाता था। पर कुछ वर्षो से यह पूर्णतः समाप्त सा था।पर अब कुछ वर्षों से पुनः गांवों में एक टोली आने लगी है वह गांवों में पहुचकर अपना देवरी जगाने का अनुष्ठानिक नृत्य दिखाते फिरते हैं।






काश ! आत्म निर्भर गाँव की वही दिवाली लौट आती ? स्मरण @पद्मश्री बाबूलाल दाहिया

@ स्मरण 

स्मरण @ पद्मश्री बाबूलाल दाहिया
मो -9981162564

काश !  आत्म निर्भर गाँव की वही दिवाली लौट आती ?

            आज दीपावली है। मुझे जहाँ तक स्मरण है मैं 1950 से हर साल दीपावली मनाता आ रहा हूं। उस समय मैं 7 साल  का था। हमारे उस जमाने मे आज जैसे बम्म पटाखे छुरछुरी नही थे। पर पडाके हम भी फोड़ते थे। 
        इसके लिए हमारे साथी  खोखले बांस की एक पोगड़ी बनाकर  क्यांच नामक पौधे के फल को उस बॉस के खोल में डालते और एक अन्य सीधी लकड़ी को जैसे ही पिचकारी की तरह उसे ठेलते तो उस पोगड़ी से बड़े जोर से पडाक की आवाज निकलती। उस स्वनिर्मित यंत्र से निकली पडाक की आवाज में जो आनंद य उल्लास की अनुभूत होती वह बाद में किसी भी बम्म पटाखे में नही दिखी। 
           जब अन्दर दीप जल जाते तो बाहर हम लोग अंड बिजोरा ,, जट्रोफा,, के बीज की गिरी को किसी तार य लकड़ी में पिरो लेते और उसे जलाते तो एक के बाद एक वह घण्टो  प्रकाश देता रहता।

    
                मेरा ख्याल है कि शहर वालो ने उसी की नकल में बम्म पटाखे छुरछुरी आदि बनाया होगा।
        मैं स्कूल में दाखिला ले चुका था पर दशहरा से दीपावली तक उन दिनों 28 दिन की फसली छुट्टी होती जिसमें हम लोग धान की गहाई और ज्वार की तकाई में परिवार की मदद करते ,गाय बैलो को खरिक ले जाते और हम उम्र साथियो के साथ खूब मौज मस्ती करते।
        मुझे उन दिनों का गाँव के तमाम कुटीर उद्द्मियो का ब्यावसायिक ताना बाना देख ऐसा लगता है कि होली और दीवाली पूरी तरह कृषक संस्कृति से उपजे   नई फसल आने के आनन्द उल्लास के त्योहार है।
        मेरे परिवार में उस समय माता पिता, बड़े भाई भाभी और 1 मुझ से बड़ी बहन इस तरह 6 सदस्य ही थे। किन्तु  दो गाय एवं 4 बैल थे । और वह सब उन दिनों की संस्कृति में हमारे परिवार के सदस्य जैसे ही थे।
     मुझे वह दीपावली इसलिए याद है कि उस दिन सब के घर में तो दिया जले थे और सभी लोगो के गाय बैल  दूसरे दिन सुबह गेरू से रगे सींग तथा मोहरा सिगोटी पहन कर खरिक गए थे । पर न तो हमारे यहां दीप जले थे न  ही हमारे गाय बैलो की सींग रगी गई थी।

        मैंने घर आकर माँ से इसका कारण पूछा तो उनने बताया कि ,, दिवाली के दिन तुम्हारे काका  का बछड़ा मर गया था इसलिए दीवाली हमारे यहां खुनहाव मानी जाती है। ,,बाद में घर की पोताई झराई दीपक जलाने आदि की रस्म एकादसी को पूरी हुई थी। पर कितना सम्मान था उन दिनों गाय बछड़ो का कि चाचा के घर भी बछड़ा मर जाए तो त्योहार खुनहाव।
        दूसरे दिन पिता जी एक टोकने में अनाज लेकर बैठ गए थे और जितने भी गाँव के वरगा वाले उद्दमी आये थे सभी को खुसी खुसी निर्धारित मात्रा मे अनाज दिया था। इस अनाज देने की त्योहारी  रस्म को पेनी कहा जाता था। पर जब मैंने बड़े भइया से इसका मतलब पूछा तो उनने उसे पोनी परजा कहे जाने वालों के  दारू पीने का त्योहारी उपहार बताया था।
           किन्तु न तो खरिक में अब वह गेरू से रंगी चंगी गाय दिखती न मोहरा सिगोटी से अलंकृत बैल। उन सहायक उद्द्मियो और कृषक पुत्रो ने भी उस पुराने अलाभकारी उद्दम और खेती को जी का जंजाल समझ भोपाल इंदौर ,गुजरात मुम्बई का रास्ता पकड़ चुके है। क्योकि गाँव का अर्थ शास्त्र अब एक दश टोका की बाल्टी की तरह है कि गाँव का पैसा बिभिन्न रास्ते से शहर रूपी कुएं में ही केंद्रित हो रहा है।
         अलबत्ता जब गाँव के यह सभी करतूती त्योहारों में घर आते है तो  उनके द्वारा लाये गये शहर के बम्म पटाखे रंग बिरंगी मूर्तियां झालरे आदि की भरमार और चटक मटक अवश्य कुछ दिनों केलिए गाँव मे दिखने लगती है।
पर वस्तुतः गाँव मे वह आत्मनिर्भरता की ठोसाई नही है । सब कुछ दिखावटी है। 
          क्यो कि अब अपना हिंदुस्तान गाँव मे नही शहर में बसता है और शहर का लाया ही तरह तरह का जहर  खाता है।

दीपोत्सव पर तमसो मा ज्योतिर्गमय का मंत्र चरितार्थ करें- विजयशंकर चतुर्वेदी



दीपोत्सव पर तमसो मा ज्योतिर्गमय का मंत्र चरितार्थ करें
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आलेख - विजयशंकर चतुर्वेदी-
          वरिष्ठ पत्रकार 

                  दीपावली बृहदारण्यकोपनिषद् (1.3.28) के ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ वाले मंत्र को चरितार्थ करने वाला प्रकाश पर्व है. यह मनुष्य की तबीयत से पत्थर उछालने की सामूहिक कोशिश भी है. अमावस्या की रात में जब आसमान गहन अंधकार से आच्छादित होता है, धरतीवासी मनुष्य माटी के दीयों का गौरव दर्शाकर उस अंधकारा को तोड़ने का हौसला दिखाता है. ये छोटे-छोटे दीपक युगों-युगों से उस विराट शक्ति के ज्वलंत प्रतीक बने हुए हैं जो भीतर के उजाले से बाहर के अंधेरे की परतों को काटती आई है. बेशक हिंदू, जैन, बौद्ध, सिख धर्मों में दीपावली मनाने की शुरुआत से संबंधित अलग-अलग धार्मिक, पौराणिक कथाएं और किंवदंतियां प्रचलित हैं, लेकिन इन सभी के मूल में बुराई पर अच्छाई की विजय, स्वागत, हर्ष और उल्लास की भावना छिपी हुई है.

           ऐतिहासिक दृष्टि से देखा जाए तो ‘दीपदानोत्सव’ का वर्णन तीसरी सदी के बौद्धग्रंथ ‘अशोकावदान’ में मिलता है, जिसे सम्राट अशोक ने अपने पूरे सामाज्य में 258 ईसा पूर्व में मनाना शुरू किया था. तीसरी सदी ईसा पूर्व की सिंहली बौद्ध ‘अट्ठकथाओं’ को आधार बनाकर पांचवीं सदी के भिक्खु महाथेर द्वारा रचित ‘महावंस’ में उल्लेख आता है कि तथागत बुद्ध जब अपने पिता राजा शुद्धोदन के आग्रह पर कार्तिक माह की अमावस्या को कपिलवस्तु पधारे तो नगर वासियों ने उनके स्वागत में पूरे नगर को दीपों से सजाया था. लेकिन आज लंकाविजय के पश्चात भगवान राम, माता सीता और भैया लक्ष्मण की अयोध्यावापसी और दीपमालाओं से उनके स्वागत से जुड़ी कथा सबसे अधिक प्रचलित है. यह भारत समेत दुनिया भर में बसे हिंदुओं का सबसे बड़ा त्योहार बन चुका है.

असत्य से सत्य की ओर यात्रा का श्रीगणेश तब तक संभव नहीं है, जब तक इसके मार्ग में अहंकार और वैमनस्य रूपी दुर्धर्ष बाधाएं खड़ी हों. अहंकार के चलते ही आज हम प्रदूषण की चिंता किए बगैर इतने पटाखे चलाते हैं कि मुंबई जैसे महानगर में दीपावली की अगली सुबह धूम्रपान न करने वाला व्यक्ति भी 113 सिगरेट के बराबर धुंआ पीने को मजबूर हो जाता है. धार्मिक वैमनस्य की भावना से ही हम सुप्रीम कोर्ट द्वारा पटाखों की तीव्रता पर लगाई गई पाबंदी की धज्जियां उड़ा देते हैं. क्या हम यह कल्पना भी कर सकते हैं कि जिस तरह की परेशानी इस पटाखेबाजी के चलते मनुष्यों को होती है उससे कहीं अधिक कष्ट पशु-पक्षियों को हो सकता है. वे भी पटाखों और रॉकेटों की जद में आकर मरते हैं, जख़्मी होते हैं. लेकिन हम तो यह सोचकर धन्य हो लेते हैं कि मेरे पटाखे की आवाज पड़ोसी के पटाखे से अधिक धमाकेदार रही!

पटाखों के धमाके सुनकर कुत्ता, बिल्ली, गाय, बैल और बकरी जैसे पालतू जानवरों में भगदड़ मच जाती है. पक्षी घबराहट में अपने-अपने ठिकाने छोड़कर सुरक्षित और शांत जगहों की तलाश में उड़ जाते हैं. अक्सर यह देखा गया है कि पशु-पक्षियों में पटाखों के धुएं का बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है. वे सांस लेने में अड़चन महसूस करते हैं, भय के कारण जहां जगह मिली वहीं दुबक जाते हैं, कई बार खुद पर से नियंत्रण खो देते हैं और पटाखों की लड़ी पर ही जा बैठते हैं, कई दिनों के लिए खाना-पीना छोड़ देते हैं और पालतू व्यवहार छोड़कर चिड़चिड़े भी हो जाते हैं. इनमें से कई छोटे पक्षी तो तेज आवाज न सह पाने के कारण हृदयाघात से जान गंवा देते हैं. यह भी देखने में आता है कि पटाखों की आवाज और धुएं से घबरा कर बाहर घूमने वाले कुत्ते-बिल्लियां, गाय-बैल और दूसरे पशु बिदक कर दीवार से जा टकराते हैं, गड्ढों में जा गिरते हैं, गाड़ियों के नीचे आ जाते हैं, खम्भों से टकरा जाते हैं.

          आंकड़े बताते हैं कि दीवाली के आस-पास पशुओं की मौतों में 10-15% का इजाफा हो जाता है. आप भी ध्यान देंगे तो पाएंगे कि लगातार पटाखे फोड़े जाने से आपकी बिल्डिंग के आस-पास घूमते रहने वाले कई कुत्ते-बिल्लियां और पक्षी कुछ समय के लिए गायब हो गए हैं, घरों में पल रहे कुत्ता-बिल्ली उतने स्वच्छंद नहीं दिख रहे, पिंजरे के तोता-मैना खामोशी अख्तियार किए हुए हैं या अधिक ही कर्कश हो उठे हैं. ध्वनि सुनने के मामले में पशु-पक्षी मनुष्य से कहीं अधिक संवेदनशील होते हैं इसलिए उनको तेज आवाज से अधिक तकलीफ होती है. ऐसे में उनकी दिनचर्या बदल जाती है और खाने-पीने का समय भी बदल जाता है और इसका नतीजा यह होता है कि वे गंभीर रूप से बीमार पड़ जाते हैं.


         मुंबई के तबेले वालों का अनुभव यह रहा है कि पटाखों की आवाज से घबराकर गाय-भैंसें अपने थन खींच लेती हैं जिससे दीवाली के समय दूध का उत्पादन घट जाता है. कई बार तो वे दुहने भी नहीं देतीं. पटाखों के धुएं से इन पशुओं की श्वांसनलिका में संक्रमण का खतरा भी उत्पन्न हो जाता है. संकट यह भी है कि ध्वनि एवं वायु प्रदूषण से पक्षियों को होने वाले नुकसान की नापजोख करने का भारत में कोई तंत्र ही मौजूद नहीं है इसलिए ठीक-ठीक नहीं बताया जा सकता कि दीवाली के समय या बाद में इसका पक्षियों पर कितना दुष्परिणाम होता है. लेकिन यह तय है कि कबूतर, गौरैया, कौवा, गलगल और तोता जैसे पक्षी बड़ी संख्या में दीवाली के समय स्थलांतर करते हैं और यही वह समय होता है जब हमारे रॉकेटों से टकराकर उनके घायल होने की आशंका अधिक होती है.


दीपावली खेती, व्यापार और सामाजिक जीवन से जुड़ा सार्वजनिक महापर्व है. इसे पूरे हर्षोल्लास के साथ मनाएं, लेकिन ध्यान रहे कि ऐसी जगहों पर पटाखे और रॉकेट न चलाए जाएं, जहां पशु-पक्षियों का बसेरा हो. घर में कुत्ता-बिल्ली पाल रखे हों तो शोर होते वक्त दरवाजे-खिड़कियां बंद रखें, खाना-पीना छोड़ने की स्थिति में उन्हें पशु-चिकित्सक को दिखाएं, उनके खाने-पीने का समय बदल कर देखें और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि घर के अंदर बच्चों को पटाखे बिल्कुल न चलाने दें. घर में पटाखे चलाने पर तो ध्वनि और वायु प्रदूषण के चलते परिजनों के साथ-साथ पालतू पशु-पक्षियों की जान पर भी बन आएगी.

साभार@-  
https://abpnews.abplive.in/blog/vijayshankar-chaturvedi-blog-on-diwali-festival-1226734

Sunday, October 27, 2019

काश ! आत्म निर्भर गाँव की वही दिवाली लौट आती ? बाबूलाल दाहिया


काश !  आत्म निर्भर गाँव की वही दिवाली लौट आती ?

आलेख- बाबूलाल दाहिया

            आज दीपावली है। मुझे जहाँ तक स्मरण है मैं 1950 से हर साल दीपावली मनाता आ रहा हूं। उस समय मैं 7 साल  का था। हमारे उस जमाने मे आज जैसे बम्म पटाखे छुरछुरी नही थे। पर पडाके हम भी फोड़ते थे। 
          इसके लिए हमारे साथी खोखले बांस की एक पोगड़ी बनाकर  क्यांच नामक पौधे के फल को उस बॉस के खोल में डालते और एक अन्य सीधी लकड़ी को जैसे ही पिचकारी की तरह उसे ठेलते तो उस पोगड़ी से बड़े जोर से पडाक की आवाज निकलती। उस स्वनिर्मित यंत्र से निकली पडाक की आवाज में जो आनंद य उल्लास की अनुभूत होती वह बाद में किसी भी बम्म पटाखे में नही दिखी। 
          जब अन्दर दीप जल जाते तो बाहर हम लोग अंड बिजोरा ,,जट्रोफा,, के बीज की गिरी को किसी तार य लकड़ी में पिरो लेते और उसे जलाते तो एक के बाद एक वह घण्टो  प्रकाश देता रहता।
      मेरा ख्याल है कि शहर वालो ने उसी की नकल में बम्म पटाखे छुरछुरी आदि बनाया होगा।
        मैं स्कूल में दाखिला ले चुका था पर दशहरा से दीपावली तक उन दिनों 28 दिन की फसली छुट्टी होती जिसमें हम लोग धान की गहाई और ज्वार की तकाई में परिवार की मदद करते ,गाय बैलो को खरिक ले जाते और हम उम्र साथियो के साथ खूब मौज मस्ती करते।

         मुझे उन दिनों का गाँव के तमाम कुटीर उद्द्मियो का ब्यावसायिक ताना बाना देख ऐसा लगता है कि होली और दीवाली पूरी तरह कृषक संस्कृति उपजे   नई फसल आने के आनन्द उल्लास के त्योहार है।
      मेरे परिवार में उस समय माता पिता, बड़े भाई भाभी और 1 मुझ से बड़ी बहन इस तरह 6 सदस्य ही थे। किन्तु दो गाय एवं 4 बैल थे । और वह सब उन दिनों की संस्कृति में हमारे परिवार के सदस्य जैसे ही थे।
    मुझे वह दीपावली इसलिए याद है कि उस दिन सब के घर दिया जले थे और सभी लोगो के गाय बैल उस दीपावली के दूसरे दिन गेरू से रगे सींग तथा मोहरा सिगोटी पहन कर खरिक गए थे । पर न तो हमारे यहां दीप जले थे न  ही हमारे गाय बैलो की सींग  रगी गई थी।
      मैं ने घर आकर माँ से इसका कारण पूछा तो उनने बताया कि ,, दिवाली के दिन तुम्हारे काका  का बछड़ा मर गया था इसलिए दीवाली हमारे यहां खुनहाव मानी जाती है। ,,बाद में घर की पोताई झराई दीपक जलाने आदि की रस्म एकादसी को पूरी हुई थी। पर कितना सम्मान था उन दिनों गाय बछड़ो का कि चाचा के घर भी बछड़ा मर जाए तो त्योहार खुनहाव।
      दूसरे दिन पिता जी एक टोकने में अनाज लेकर बैठ गए थे और जितने भी गाँव के वरगा वाले उद्दमी आये थे सभी को खुसी खुसी निर्धारित मात्रा मे अनाज दिया था। इस अनाज देने की त्योहारी  रस्म को पेनी कहा जाता था। पर जब मैंने बड़े भइया से इसका मतलब पूछा तो उनने उसे दारू पीने का त्योहारी उपहार बताया था।
        किन्तु न तो खरिक में अब वह गेरू से रंगी चंगी गाय दिखती न मोहरा सिगोटी से अलंकृत बैल। उन सहायक उद्द्मियो और कृषक पुत्रो ने भी उस पुराने अलाभकारी उद्दम और खेती को जी का जंजाल समझ भोपाल इंदौर ,गुजरात मुम्बई का रास्ता पकड़ चुके है।
क्योकि गाँव का अर्थ शास्त्र एक दश टोका की बाल्टी की तरह है कि गाँव का पैसा बिभिन्न रास्ते से शहर रूपी कुएं में ही केंद्रित हो रहा है।
    अलबत्ता जब गाँव के यह सभी करतूती त्योहारों में घर आते है तो  उनके द्वारा लाये गये शहर के बम्म पटाखे रंग बिरंगी मूर्तियां झालरे आदि की भरमार और चटक मटक अवश्य गाँव मे दिखने लगती है।
पर वस्तुतः गाँव मे वह आत्मनिर्भरता की ठोसाई नही है । सब कुछ दिखावटी है। 
     क्यो कि अब अपना हिंदुस्तान गाँव मे नही शहर में बसता है और शहर का लाया ही तरह तरह का जहर खाता है।





Saturday, October 26, 2019

धरती हिलती है और पत्थर बजता है।

3 वर्ष पहले 26 अक्टूबर 2016 को मैनपाट अम्बिकापुर छत्तीसगढ़ यात्रा पर धरती हिलने और ठिनठिना पत्थर के बारे में स्मरण  ।

📝 अनुपम दाहिया

धरती हिलती है और पत्थर बजता है।
         सुनने में आश्चर्य पर अंबिकापुर छत्तीसगढ़ के  मैनपाट  नामक पठार के ऊपर जलजला  स्थान है । जहाँ जमीन पर उछलने पर  आसपास की जमीन पर कम्पन का अनुभव उतपन्न होता है  यह जगह  लंबे समय से लोगों की दिलचस्पी का केंद्र है यदि खड़े होकर थोड़ा भी जम्प करे तो।  
ठीक उसी तरह,जैसा किसी गद्दे पर उछलने से महसूस हो सकता है। 
       जमीन पर कूदते ही वह धंसती है और गेंद की तरह वापस ऊपर आ जाती है। कुदरत के इस खेल को देखने  बाहरी लोग दिन भर पहुंचते रहते हैं और  कुछ देर तक बच्चों की तरह उछलते रहते हैं। पर यह सिर्फ 3 - 4 हैक्टर क्षेत्र भर में ऐसा है ।
 इसे तार से फ्रेन्सिंग कर छत्तीसगढ़ पर्यटक बिभाग ने घेर रखा है।। 

मैंनपाट का पठार लगभग 40 किलोमीटर लम्बा और 30 किलोमीटर चौड़ा व पचमढ़ी के बरावर ही ऊँचा है। जहाँ चढ़ने पर आक्सीजन की कमी के कारण घुटन सी महसूस होती है पर वहा बसने बाले माझी और उराव आदिवासी आराम से निवास करते है। यह जरूर है कि उनकी शारीरिक संरचना दुबली पतली और ऊँचाई 5 फीट से ऊपर नही है।
           
इसी तरह  पहाड़ी के नीचे मैदानी भू भाग दरिमा हवाई पट्‌टी के पास एक बहुत पुराना पत्थरो की ढेर है उनमे बाकी पत्थरो से तो खट खट की आवाज आती है पर ऊपर वाले पत्थर  से खन्न खन्न और टन्न टन्न की ध्वनि निकलती है टकराने वाली चीज की हार्डनेस और मैटलिक कंटेंट के आधार पर आवाजें भी अलग-अलग निकलती हैं  हालांकि सारी आवाजें सरल भाषा में टनटनाहट जैसी होती हैं। इस विलक्षणता के कारण इस पत्थरो को अंचल के लोग ठिनठिनी पत्थर कहते है। इसे लेकर आसपास कई तरह के किस्से- कहानियां हैं। कुछ लोग इसे चमत्कार तो कुछ दूसरे ग्रह या उल्का का पत्थर भी मानते हैं।
पर हर चमत्कारी चीजो  के पीछे भी कोई न कोई बैज्ञानिक कारण होता है।

 
पत्थर के बजने को मेरे दादा जी ने बताया कि उस पत्थर के दोनों सिरा एक बड़े पत्थर में रखे है पर बीच में पोला गैप उसके बजने का कारण होगा ।

 इसी तरह हिलने वाली जमीन को उनने बताया कि वह पुरानी झील रही होगी जहाँ सघन सरई के पेड़ो के पत्ते आकर भठ गए तथा बह बह कर आई मिट्ठी की एक पर्त ने उसे दल दल बना दिया जिस के ऊपर घास जम आई पर नीचे पानी और पत्तो की पर्त होने के कारण ऊपरी सतह हिलने लगी।
   आप भी धरती हिलने और ठिनठिना पत्थर की फोटो  और वीडियो  देखिये

भोपाल की हरियाली को खतरा,विधायक आवास के लिए काटे जा रहे हैं 1000 पेड़- रिपोर्ट @ मनीष चन्द्र मिश्रा


रिपोर्ट- मनीष चन्द्र मिश्रा
https://www.downtoearth.org.in/hindistory/1000-trees-are-being-cut-for-mla-residence-in-bhopal-67450



भोपाल की हरियाली को खतरा, विधायक आवास के लिए काटे जा रहे हैं 1000 पेड़
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बीआरटीएस के नाम पर हाल ही में 2400 पेड़ काटे गए थे, अब 1000 पेड़ काटे जाने की योजना है। एक शोध के मुताबिक, पिछले एक दशक में भोपाल में 26 फीसदी हरियाली कम हुई है

               भोपाल के न्यू मार्केट से सटे टीटी नगर इलाके में प्रवेश करते ही धूप में पेड़ों के सूखते पत्तों की महक आने लगती है। पास जाने पर दिखता है कि कहीं पेड़ों की कटी हुई शाखाएं बिखरी हैं तो कहीं मोटा तना कटा हुआ पड़ा है। निर्माण कार्य में लगे मजदूर कभी कटे हुए तनों पर आराम फरमा रहे हैं तो कभी आसपास बिखरे कटे हुए तने, शाखाओं और उनके मुरझाए पत्तों को समेटकर ट्रॉली में रख रहे हैं। पेड़ों के कटने के बाद जमीन में हुए बड़े गड्ढे विनाश के इस मंजर को दिखा रहे हैं। यह विनाश स्मार्ट सिटी परियोजना के तहत भोपाल को विकसित किए जाने की वजह से हो रहा है।
सिर्फ स्मार्ट सिटी ही नहीं, भोपाल में चल रहे दूसरे विकास कार्यों के लिए भी पेड़ों की अंधाधुंध कटाई चल रही है। विधायक आवास बनाने की पुरानी योजना को अमल में लाने के लिए 1000 पेड़ों की बली दी जा रही है। वहीं शहर में बीआरटीएस कॉरिडोर के लिए 2400 पेड़ काटे गए थे। नर्मदा पेय जल स्टोरेज के लिए 400, शौर्य स्मारक के लिए 200, सिंगार चोली ब्रिज और सड़क चौड़ीकरण के लिए 1000, हबीबगंज रेलवे स्टेशन पर विकास कार्य के लिए एक हजार से अधिक और एयरपोर्ट रोड के लिए दो हजार से अधिक पेड़ बीते कुछ महीनों में काटे गए हैं। मुंबई में आरे वन क्षेत्र को काटने से रोकने के लिए भोपाल के लोगों ने भी अपनी आवाज बुलंद की थी, लेकिन शहर में हो रहे पेड़ों की कटाई का कोई विरोध होता नहीं दिख रहा है।

भोपाल में काटे जा रहे पेड़- फोटो: मनीष चंद्र मिश्रा


बेशकीमती पेड़ काटे, इकोलॉजी और बायोडायवर्सिटी तबाह हुई
शहर के पर्यावरणविद् सुभाष पांडे बताते हैं कि उन्होंने हाल ही में एक शोध में पाया कि भोपाल में बीते 10 साल में 26 प्रतिशत हरियाली में कमी आई है। सुभाष बताते हैं कि विकास कार्य के दौरान पेड़ तो काटे जा रहे हैं लेकिन उतनी गंभीरता के साथ उसकी भारपाई नहीं हो रही है। उनका मानना है कि 50 से 100 साल पुराने पड़ काटकर उसके बदले नए पेड़ लगाने से पर्यावरण को हुए नुकसान की भारपाई हो भी नहीं सकती है। एक पेड़ कटने के बाद उसपर सैकड़ो जीव-जन्तु और पक्षियों का जीवन संकट में आ जाता है और इलाके की जैव विविधता भी खत्म हो जाती है। पेड़ के बदले कंक्रीट का जंगल तापमान को कई गुना बढ़ा रहा है। सुभाष की रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 2009 से 2019 तक शहर में लगभग तीन लाख पेड़ काटे गए हैं और इस तरह से कटाई होती रही तो भोपाल में 2025 तक महज तीन फीसदी हरियाली रह जाएगी।
पांच हजार नए पौधे भी एक पेड़ कटने की भारपाई नहीं कर सकते
पेड़ों के विशेषज्ञ और पूर्व वन अधिकारी डॉ. डॉ. सुदेश. वाघमारे बताते हैं कि जिस इलाके में स्मार्ट सिटी बनाई जा रही है वह कभी जंगल का हिस्सा हुआ करती थी। उसमें बेशकीमती जंगली पेड़ लगे थे जिसकी समझ न तो स्मार्ट सिटी प्रोजेक्ट बनाने वाले लोगों में है और न ही वो इसे बचाना चाहते हैं। उन्होंने बताया कि सरकारी कॉलोनी बनने के बाद देश के कई राज्यों से आए सरकारी कर्मचारियों ने वहां अपने स्थानीय इलाकों के पेड़ लगाए थे। इस वजह से वहां आम, आंवला, बरगद, कचनार, पुत्रंजिवा, अमलतास, गुलमोहर, जारूल, पिंक केसिया, परिजात जैसे सैकड़ों प्रजाति के पेड़ लगे थे। डॉ. वाघमारे ने कहा कि पेड़ों को बचाकर भी विकास किया जा सकता था, लेकिन हरियाली की अनदेखी की वजह से जो नुकसान हुआ है उसकी कल्पना नहीं की जा सकती। वो चाहते तो पेड़ों को सुरक्षित रखकर स्मार्ट सिटी प्रोजेक्ट में इस बात का उल्लेख भी कर सकते थे। डॉ. वाघमारे बताते हैं कि एक 60 सेंटीमीटर का पेड़ काटकर उसके बदले 5 हजार पेड़ भी लगा दिए जाएं तो नुकसान की भरपाई तत्काल नहीं की जा सकती है। स्मार्ट सिटी के लिए पहले शिवाजी नगर का इलाका चुना गया था लेकिन वहां के रहवासियों ने पेड़ बचाने के लिए पोजेक्ट का विरोध किया और इसे बाद साउथ टीटी नगर वाले इलाके में शिफ्ट किया गया।

जिम्मेदारों का तर्क, अधिक से अधिक पेड़ बचाने की कोशिश
स्मार्ट सिटी कंपनी के प्रभारी सिटी इंजीनियर ओपी भारद्वाज ने डाउन टू अर्थ से बातचीत में बताया कि 342 एकड़ में तीन हजार पेड़ हैं जिनमें से आधे को बचाने की कोशिश हो रही है। वे बताते हैं कि प्रोजेक्ट शुरू करने से पहले पेड़ों को बचाने के लिए सर्वे किया गया था। इसके अलावा पहले चरण में 300 पेड़ों को हटाकर दूसरी जगह लगाने की योजना भी है।
विधायक आवास बनाने की योजना विरोध की वजह से तीन साल पहले बंद कर दी गई थी, लेकिन इसे एकबार फिर शुरू किया जा रहा है। मध्यप्रदेश विधानसभा अध्यक्ष एनपी प्रजापति ने डाउन टू अर्थ को बताया कि यह प्रोजेक्ट काफी पुराना है और सभी नियमों का पूरा ख्याल रखा गया है। मीडिया में इस प्रोजेक्ट को लेकर छवि खराब करने वाली खबरे प्रकाशित हो रही है जबकि सच्चाई ये है कि इसके बदले चार हजार पेड़ लगाए भी जा चुके हैं।



Monday, October 21, 2019

दाहिया जागृति पत्रिका के सम्बंध में आवश्यक बैठक सम्पन्न

पुस्तके समाज का आईना होती है

दाहिया जागृति पत्रिका के सम्बंध में आवश्यक बैठक सम्पन्न
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अनिल बने प्रदेश अध्यक्ष

मध्यप्रदेश दाहिया दहायत महासंघ सतना द्वारा दाहिया जागृति पत्रिका के सम्बंध में आवश्यक बैठक सामुदायिक भवन गोपाल कालोनी टिकुरिया टोला सतना मे संपन्न हुई । बैठक में मुख्य अतिथि के आसंदी  से बोलते हुए पद्मश्री बाबूलाल दाहिया ने कहा कि  समाज के इतिहास को समेटे प्रकाशित होने वाली पुस्तक दाहिया जागृति महत्वपूर्ण होगी पुस्तके समाज का आईना होती है जो आगे चलकर प्रमाणित होकर इतिहास बन जाती हैं । जिसमे आने वाली भावी पीढ़ी लाभांवित होती है । युवा पीढ़ी ही देश और समाज का भविष्य होती है। समाज के विकास व नई दिशा प्रदान करने के लिए युवाओं के जोश की आवश्यकता है और उन्हें सामाजिक कार्यों की अधिक से अधिक जिम्मेदारी देने की भी आवश्यकता है  । 
कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे जिलाध्यक्ष राजेंद्र दाहिया ने समाज के इतिहास को समेटे प्रकाशित होने वाली पत्रिका की रूपरेखा बताते हुए कहा कि यह पुस्तक समाज के सभी वर्गों के लिए लाभदायक होगी। इसमें सामाजिक इतिहास व स्वरूप को विस्तार से उल्लेखित किया जाना है। इस पत्रिका के माध्यम से समाज मे छुपी हुई अनेक प्रतिभाओं को उजागर होने का अवसर मिलेगा। अनिल दाहिया ने समाज के जागरूक युवकों से अपील की कि ऐसे तमाम विशेष तरह के कार्य करने वाले लोगो की जानकारी एकत्र कर सम्पादक मंडल तक उपलब्ध कराए जिसे इस पत्रिका में प्रकासित किया जाये। कार्यक्रम में विशिष्ट अतिथि के रूप में चिकित्साधिकारी डॉ धीरज दाहिया, सीताराम दाहिया अशोक दाहिया रहिकवारा,पार्षद शैलेन्द्र दाहिया,सम्भागीय सचिव सोनू दाहिया,विवेक दाहिया कटहा रामउजागर दाहिया रिंकू ,आदिनाथ दारा,श्यामशरण दाहिया,आदि ने भी अपने विचार रखे। इस दौरान सामाजिक पहलुओं,शिक्षा का स्तर सुधारने संगठन को संगठित और एकजुट रहते हुए मजबूत करने पर जोर  देते हुए कई अहम मुद्दों पर विचार विमर्श किया गया।
साथ ही सभी कार्यकरणी पदाधिकारियों के निर्णयानुसार  सर्वसम्मति से समाजसेवी अनिल दाहिया को प्रदेशाध्यक्ष चुना गया 
कार्यक्रम का संचालन रामकरण रेरुआ व आभार प्रदर्शन जिलाध्यक्ष राजेन्द्र दाहिया ने किया। कार्यक्रम में डॉ दयाराम दाहिया,अनुपम दाहिया, पुष्पेंद्र दाहिया,रावेन्द्र दाहिया,रामदत्त उर्फ छोटु,प्रीतम,राहुल,आरपी आमिन, सतेंद्र दाहिया, शिवनारायण सुनील,राकेश,बद्दरी, दाहिया,सुनील दाहिया, रामबालक,बिंद्रा दाहिया,सहित बड़ी संख्या में समाज के वरिष्ठ जनों और युवाओं ने भाग लिया




Sunday, October 20, 2019



📝 अनुपम दाहिया
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बाजार से लुप्त होता जा रहा है पारंपरिक दीपों का चलन
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मिट्टी से बर्तन बनाने वाले कुम्हारों (प्रजापति) पर छाने लगा है रोजी-रोटी का संकट पुस्तैनी व्यवसाय खत्म होने की कगार पर
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दशहरा पर्व खत्म होने के साथ लोग दीवाली की तैयारी में जुट गए हैं  एक दौर था,जब कुम्हारों को दिवाली का इंतज़ार रहता था।, और दीवाली का पर्व आते ही पुस्तैनी मिट्टी से बर्तन बनाने वाले कुम्हारों में खुशी की लहर दौड़ने लगती थी। उस समय मिट्टी के दिये की मांग बहुत ज्यादा थी और दिवाली मे ही कुम्हार इतना कमा लेते थे कि उनके साल भर का खर्च आराम से चल जाता था।  कुम्हार परिवार समेत दिन रात एक कर मिट्टी के दीये व बर्तन बनाने में जुट जाते हैं ।किन्तु कहते है कि पूरे विश्व की आवश्यकताओं का अध्ययन कर उनके जरूरत के अनुसार सस्ती वस्तुए निर्मित करने वाले चीन ने भारतीय बाजार में भी अपने सस्ते दीप व बर्तन  रंग बिरंगे डिज़ाइनर ,की ओर तरफ ज्यादा आकर्षित होने लगे,जिससे मिट्टी के दीये की मांग साल प्रति साल घटती चली गई,बिक्री कम होने से कुम्हारों के सामने रोजी-रोटी व आर्थिक संकट उत्पन्न होने लगा।
भारी मेहनत के बावजूद भी मिलता है आधा दाम
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इस काम मे मजे हुए कुम्हार समाज के बुजुर्ग बताते है कि हफ्तों की कड़ी मेहनत के बाद मिट्टी के बर्तन तैयार हो पाते है पहले बहुत दूर से तालाब या किसी बांध से मिट्टी को खोदकर लाते है।फिर मिट्टी को साफ कर उसमें से ककंर,पत्थर निकाले जाते हैं।साथ ही मिट्टी में घोड़े,गधे की लीद को मिलाकर उस मिट्टी को दिन दिन भर गूथा जाता है। अगर लीद न मिलाई जाय तो सूखने पर बर्तन चिटक जाते है। किन्तु घोड़े खच्चरों के उपयोग से बाहर हो जाने के कारण अब लीद मिलना भी दूभर होता है। इसके बाद मिट्टी को चाक की मदद से आकार देता है।और इन मिट्टी के बर्तनों को आग में 24 घंटों तक पकाया जाता है। तब कही जाकर मिट्टी के बर्तन और दीपक तैयार होते हैं,अब पकाने के लिए लकड़ी की लागत भी काफी बढ़ गई। अब इतनी कड़ी मेहनत के बावजूद भी उन्हें बाजार में बेचना मुश्किल हो गया है.  मिट्टी के काम को करते करते अब उनके पास कुछ और करने का विकल्प नहीं बचा है अगर उपेक्षा के चलते ऐसा ही रहा तो आगे कुछ समय बाद कुम्हार अपना पुस्तैनी काम बंद करने को मजबूर हो जाएंगे और भूखमरी की कगार पर पहुंच जाएंगे ।
बदलते परिवेश ने बिगाड़ा पीढ़ी दर पीढ़ी चल रहे व्यवसाय
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 कुम्हारी पेशे से जुड़े कुम्हारो ने बताया कि हमारे यहां मिट्टी के बर्तन व दिये बनाने का काम पीढ़ी-दर-पीढ़ी चला आ रहा है पहले लोग ठन्डे पानी के लिए मटके  का इस्तेमाल करते थे जिससे इन वस्तुओं को बेचकर खर्च आराम से चल जाता था परन्तु बदले परिवेश मे मटकी मटके मिट्टी के की जगह फ्रिज ने ले ली,जिससे इनकी मांग कम होती चली गई आज आलम यह है कि इनको कोई पुछने वाला नही है  मिट्टी के कुल्लड़ मे चाय पीते थे परन्तु जबसे फाइवर के गिलास चल गए है तब से मिट्टी के कुल्हड़ का चलन लगभग ख़त्म सा हो गया हैं। हालांकि पूजा-पाठ,शादी-ब्याह आदि मौके पर मिट्टी के बर्तनों और दीये की बिक्री जरूर बढ़ जाती हैं,जो कुम्हारों के ऊँट के मुहं मे ज़ीरा समान है
प्राचीन काल से चल रहा कुम्हारों का व्यवसाय
यदि प्राचीन वस्तुओं को देखा जाय तो कुम्भकरो का ब्यावसाय ऐसा है जो बहुत प्राचीन काल से ही पाया जाता है। इसके संकेत  पुरातत्व की वस्तुओं की खुदाई में बैदिक काल से ही मिलने लगते है। जब तक लकड़ी के कील में कुम्हारों का चक्र घूमता रहा होगा तब तक सीमित और अनगढन घड़े ही बनते रहे होंगे।किन्तु जब लौह अयस्क की खोज हो गई तो लोहे की कील में चाक के घूमने और अधिक मात्रा में घड़े बनने के कारण घड़े ने ब्यावसाय का रूप लिया । अस्तु कुम्भकार नामक एक जाति ही बन गई।  
नई व्यापार संस्क्रति ने बिगाड़ दिया खेल
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लगातार बढ़ते आवश्यकता के अनुसार तरछी, डहरी, नाद से लेकर मेटिया दोहनी डबुला, चुकडी, और दिया तक 15- 20 प्रकार के बर्तन बनने लगे जिससे इस समुदाय का ब्यावसाय चल पड़ा। ब्यावसाय तो स्पर्धा पर टिका होता है ? जब तमाम तरह के यांत्रिक उपकरण औद्दोगिक क्रांति के बाद बने तो एक ऐसा चाक भी बन गया जो हाथ मे डंडे को लेकर घुमाने के बजाय एलेक्ट्रिक मोटर से घूमने लगा। जब चाक की रफ्तार एक जैसी बराबर हो गई तो उससे अधिक मात्रा में अधिक सुन्दर बर्तन बनने लगे। इसलिए इस नई ब्यापार संस्कृति ने ग्रामीण कुम्हारों के ब्यावसाय का भट्ठा ही बिठा दिया।
पलायन को मजबूर नवयुवक
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 कुछ नव युवक इस पैतृक धंधे को छोड़ रोजगार की तलाश में गुजरात महाराष्ट्र की ओर पालयन कर रहे है तो कुछ का रुख पंजाब ईट उद्धोग की मजदूरी की तरफ है।

1- सखिया कुम्हार (प्रजापति)- एक छोटे से दीपक को बनाने में मिट्टी खरीदने से लेकर दीपक भट्टी में तपाने तक कितना बड़ा संघर्ष होता है। तब जाकर कहीं हम अपनी संस्कृति को निभा पाते हैं अन्यथा इससे ज्यादा कोई मुनाफा नहीं है।
2- बाबू कुम्हार (प्रजापति)- पहले की तुलना में अब न के बहुत ही कम बिकते है  दीपावली ,होली,हरछठ पर ही महज खानापूर्ति के लिए ही मिट्टी से बने बर्तन खरीदते हैं। 
 3-दिनेश कुम्हार (प्रजापति)-  दीपावली में  मिट्टी के दिये में घी और तेल डालकर जलाने का विशेष महत्व है।  हम परंपरागत इसे कायम रखने के लिए दिन—रात मेहनत करते हैं और मिट्टी से बनी कई वस्तुएं लोगो के सामने पेश करते हैं।
 4-  कुट्टू कुम्हार (प्रजापति)- हमारे यहाँ के युवा इस पुश्तैनी कारोबार से मुंह मोडने लगे है इसका कारण लागत अधिक आने के कारण महंगे होने के साथ ही अधिक टिकाऊ नहीं होने के कारण इनकी बिक्री में कमी आ चुकी है।



Saturday, October 19, 2019

अतिक्रमण के कारण फुटहा तालाब के अस्तित्व पर संकट



अतिक्रमण के कारण फुटहा तालाब के अस्तित्व पर संकट
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आखिर कब अतिक्रमण मुक्त होगा गाव को पानीदार करने वाला फुटहा तालाब ? आधी से ज्यादा जमीन पर हो चुका है अतिक्रमण
विगत कई वर्षों से लगातार गिर रहे जलस्तर को देखते हुए पर्यावरण की सुरक्षा के लिए केंद्र और प्रदेश सरकार चिंतित नजर आई। विगत दिनों मंत्रालय में पानी का अधिकार’ एक्ट के लिए गठित जल विशेषज्ञों की समिति के सदस्यों के साथ चर्चा के दौरान मुख्यमंत्री कमल नाथ ने कहा था कि प्रदेश की नदियों, तालाबों तथा अन्य जल स्त्रोतों पर सभी अतिक्रमण को सख्ती से हटाया जाएगा  व जल स्त्रोतों पर अतिक्रमण को अपराध माना जाएगा साथ ही पानी का अधिकार एक्ट का प्रारूप शीघ्र बना इसे विधानसभा के शीतकालीन सत्र में पेश किया जाएगा । निर्णय बहुत ही बेहतर है  पर धरातल में देखा जाए तो स्थिति अलग ही दिखती है।
ऊँचेहरा जनपद क्षेत्र के पिथौराबाद  गांव के मध्य ह्दय स्थल कहलाने वाले फुटहा तालाब के अस्तित्व पर संकट मंडरा रहा है। अतिक्रमण के कारण इसका क्षेत्र उत्तरोत्तर सिमटता जा रहा है। और  जब तालाब का क्षेत्र सिमटने लगता है तो उसके अस्तित्व पर भी  खतरा मंडराने लगता है। अतिक्रमण के चलते यहां बरसात में जल संचय नहीं होने के कारण कुछ वर्षों से गर्मी में तालाब सूख जाता है। पहले तालाब को स्वच्छ और जीवित रखना गांव के लोग अपना क‌र्त्तव्य समझते थे। लेकिन अब स्थिति बदल गई है। कोई तालाब के बारे में सोचता भी नहीं है। जिसकी मेड़ में डेढ़ दर्जन से अधिक लोगों ने अवैध कब्जा कर बाड़ लगाकर हर वर्ष दायरा बढाते जा रहे है। व मार्ग के किनारे से 20 फीट भीतर तक तालाब की आधी  जमीन को  अतिक्रमण कर लिया है।  
      एक असमाजिक व्यक्ति ने रंगदारी करते हुए काफी लम्बे समय से तालाब के बीच 2.299 हे. लम्बे चौड़े क्षेत्र में कच्चा मकान बना खेती कर रहा है । मामले में ग्राम पंचायत की ग्राम सभा के दौरान प्रस्ताव पारित करते  पंच प्रतिनिधि सहित ग्रामीणों ने नामजद 18 कब्जेधारियों की ऊँचेहरा तहसीलदार व एसडीएम को   लिखित शिकायत की है हालांकि एक अतिक्रमणकारी को 2 वर्ष पहले 7 दिवस के अंदर  कब्जा हटाने और मूल रूप में लाने नोटिश दिया गया था  लिहाजा   2 साल  बीत जाने के बावजूद अब तक अतिक्रमण नहीं हटा है। इस तरह की उपेक्षा के कारण अब तालाब का नामो निशान धीरे-धीरे मिटता दिखाई दे रहा है। जिस पर अब एक बार पुनः पंचायत राजस्व अधिकारी सहित अन्य अधिकारियों को ग्राम पंचायत के माध्यम से शिकायत  करते ग्रामीणों ने अतिक्रमण कारियो पर  रोक लगाने और तालाब को संरक्षित करने की मांग प्रशासन से की है। एवं चेताया है कि अब समस्या का समाधान अगर नही होता तो  आंदोलन की राह पकड़ने को मजबूर होंगे 



दो साल पहले तहसीलदार ने 7 दिवस में हटाने नोटिस देकर भूल गए
जानकारी के अनुसार दिनांक 16 मार्च 2018 में तत्कालीन ऊँचेहरा तहसीलदार द्वारा पिथौराबाद फुटहा तालाब के अराजी नम्बर 1119 रकबा 2.299 हे. पर 0.800आरे में रामलाल पिता बड़कईया कुम्हार  द्वारा  कब्जा करते हुए 14x8 में अवैध रूप से कच्चा मकान  बनालिए जाने  पर  अवैध कब्जा हटाने का आदेश नोटिस के द्वारा दिया गया था जिसम 7 दिवस के अंदर प्रस्तुत होकर जमीन से अतिक्रमण हटाकर मूलस्वरूप में करना था साथ मर यह चेताया था कि अगर तय दिवस में अतिक्रमण नही हटाया जाता तो  बेदखल कर जमीन के  बाजार मूल्य 8 लाख रुपये का 20 प्रतिशत 1लाख 60 हजार रुपये अर्थदण्ड करने व अविलंब पालन न होने पर 500 रुपये प्रति दिन के हिसाब से अतिरिक्त अर्थ दण्ड भरने केलिए आदेशित किया गया था ।
      पर बाद में तहसीलदार के स्थानान्तरण हो जाने के बाद किसी भी तरह की कार्यवाही नही की गई। सिर्फ नोटिश पर नोटिस भेजी जाती रही है पर बाद में आज तक किसी ने भी आतिक्रमन मुक्त करने की जहामत नही उठाई है।

*जिले में उत्कृष्ट जैवविविधिता पार्क बनाने की योजना में फिर रहा पानी*
विगत वर्ष फुटहा तालाब के 2 हेक्टेयर भूमि को ग्राम पंचायत द्वारा  जैवविधिता प्रबंधन समिति 
को बिभिन्न प्रकार के दुर्लभ प्रजाति पौधों की  जैव विविधिता  वाटिका  लगाने हेतु हस्तांरित किया गया था जिसमे 100 से अधिक दुर्लभ प्रजाति के पौधे लगाए गए थे पर अतिक्रमणकरियो ने जड़ से ही रोपित पौधे उखाड़ कर फेंक दिए  और समिति की मन्सा पर पानी फेर दिया ।
       ज्ञात हो कि जैवविविधिता प्रबधन समिति पिथौराबाद ऐसी समिति है जो विलुप्त प्रायः पेंड पौधे वनस्पतियां व  परम्परागत अनाजो, जड़ी बूटियों, सब्जियों की प्रजातियो के सरक्षण पर काम कर रही जिसके तहत समिति को जैवविविधता के क्षेत्र में  उत्कृष्ट कार्य करने के लिए  देश का सर्वोच्च इंडिया बायोडायवर्सिटी अवार्ड-2018 भी मिल चुका है व अभी विगत माह राज्यस्तरीय प्रथम जैवविविधता पुरस्कार मिल  है । समिति के अध्यक्ष पद्मश्री बाबूलाल दाहिया व सदस्यों की सहमति अनुसार पिछले वर्ष अवार्ड में मिली राशि को सदुपयोग करते जल संरक्षण के लिए फुटहा तालाब सहित अन्य  5 फूटे हुए तालाबो की मरम्मत कराकर उन्हें इस लायक बनाया था कि उसमे बरसात का पानी रूके और गाव पानीदर बना रहे । समिति की योजना है की तालाब के अगोर की जमीन में तरह तरह के पौधे लगा कर इसे जिले के एक उत्कृष्ट जैवविधिता पार्क के रूप में विकसित किया जाय पर अतिक्रमण के कारण कुछ नही हो पा रहा। 

*इन्होंने व्यक्त की चिंता*

*जनमानस को भी प्रेरित करने की जरूरत है*
क्षेत्र में पेंड पौधे जल सरक्षण पर सक्रिय समाजसेवी इन्द्रपाल सिंह पटेल ने चिंता व्यक्त करते हुए कहा है कि  रीवा सम्भाग में लगभग 600 हजार तालाब है जो तब बने थे जब प्राचीन समय मे बहुत बड़े बड़े अकाल पड़े थे । लोग पलायन को मजबूर न हो और यहीं काम मिले इस हेतु अधिकांश तालाब पवाईदार व सम्पन्न लोगों द्वारा बनाये जाते थे जो एक पुण्य का कार्य माना जाता था। पर अब ऐसा जमाना है  की लोग तालाबो के अस्तित्व को ही खत्म करने के लिए आमादा है  फुटहा तालाब के बीच मे बेजा कब्जा किये कुछ लोगो द्वारा जिस प्रकार दुर्लभ महत्वपूर्ण और महत्वपूर्ण दुर्लभ पौधों को नष्ट कर दिया गया है ।वह जनहित में तालाब के सिकुड़ रहे आकर को अतिक्रमण मुक्त कराना जरूरी है  साथ ही  जल संरक्षण को लेकर ठोस पहल करने की आवश्यकता भी है ।
     साथ ही इसे जीवन का हिस्सा बनाते हुए जनमानस को भी प्रेरित करने की जरूरत है ।
*पंचायत ने प्रसाशन से किया अनुरोध* 
गाव के *सरपँच अशोक नागर* बताते है कि तालाब के मेंड़ पर बड़े पैमाने में बाड़ लगाकर अतिक्रमणकारियो द्वारा लम्बे पैमाने पर कब्जा कर लिया गया है व तालाब के बीचोबीच  घर भी बना लिया है। इसके  संबंध में पंचायत द्वारा ऊँचेहरा एसडीएम व तहसीलदार को आवेदन देकर अतिक्रमण से मुक्त कराने का अनुरोध किया जा चुका है ।  लेकिन अब तक उक्त तालाब को  प्रशासन द्वारा अतिक्रमण से मुक्त नहीं कराया गया है। 
*जल्द ही किया जाएगा आतिक्रमन मुक्त*  
इस मामले में ऊँचेहरा के तहसीलदार *अभयराज सिंह* ने बताया कि सम्बन्धित तालाब में आतिक्रमण के  मामले की जानकारी व आवेदन पंचायत के प्रतिनिधियों के माध्यम से  मिल चुकी है।  जल्द ही मौका का मुआयना व जांच के उपरांत आतिक्रमन मुक्त करने का प्रयास किया जाएगा
 *अतिक्रमण रोकने का बेहतर उपाय पौधरोपण*
जैवविविधिता प्रबन्धन समिति पिथौराबाद के  *इंद्रपाल सिंह पटेल* का कहना है कि  अतिक्रमण रोकने का सबसे अच्छा उपाय है तालाब के चारो तरफ मेड में वअगोर में  पौधरोपण किया जाए और ऐसी ही योजना समिति में प्रस्तावित की गई  है। पर  अतिक्रमणकारी उसमे पानी फेरने में आमादा है

फैमिली डॉक्टर ना बनाकर फैमिली किसान बनाने की आवश्यकता है - पद्मश्री बाबुलाल दाहिया

फैमिली डॉक्टर ना बनाकर फैमिली किसान बनाने की आवश्यकता है - पद्मश्री बाबुलाल दाहिया
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ऊँचेहरा जनपद क्षेत्र अंतर्गत बिहटा गाव में कृषि विभाग उचेहरा के आत्मा योजना अंतर्गत किसान प्रशिक्षण कार्यक्रम का आयोजन शासकीय हायर सेकेंडरी स्कूल बिहटा के सभागार में पद्मश्री बाबुलाल दाहिया के मुख्यातिथ्य में किया गया जहाँ खरीफ व जायद फसलों के रोकथाम कीटव्याधि,बुआई व ,फल फूल, मोटे अनाज मिट्टी परीक्षण पर किसानों के साथ विस्तार से चर्चा की  उक्त उद्बोधन पद्मश्री बाबुलाल दाहिया ने मुख्यतिथ्य बतौर उद्बोबोधन में कहा  कि आज जितने भी अनाज है हमारे कृषक पूर्वजो ने  जंगलों में खोजे थे हमारे पूर्वज सदियों से बोते रहे हैं  फायदों को उन्होंने अपने हजारों सालों के विकासक्रम में खोजा हरित क्रान्ति की चाह में हमने अपने परम्परागत खेती और पानी के जमीनी भंडार का बहुत नुकसान किया है। अब वापस उनके इस्तेमाल पर जोर देना होगा। आज  जितने भी तरह के अनुसंधान हो रहे है हमारे उन्ही अनाजो में हो रहा है ।अब खेती लाभ का धंधा नहीं रही  पहले  कृषि आश्रित समाज था किसान खेत के अनुसार अनाज होता था पर अब बाजार के हिसाब से बो रहा है अब हमें देशी परंपरागत अनाज को बचाने की आवश्यकता है क्योंकि उनमें कम और अधिक पानी में पकने की क्षमता विकसित है उनमे रासायनिक खादों व कीटनाशी की आवश्यकता बिल्कुल भी नही है रासायनिक खादों कीटनाशी के दुष्परिणाम सब के सामने है इसलिए अब फैमिली डॉक्टर ना बनाकर फैमिली किसान बनाने की आवश्यकता है ।
इस दौरान राजेश तिवारी सम्भागीय यंत्री ने  कहा कि किसान और मवेशियों का चोली दामन का साथ है पहले हमारे  पुरखे  बुवाई से पहले खेत  पखरते थे साथ ही मधुमक्खी बचाने की बात कही उन्होंने कहा कि 10 में से 7 फसलें मधुमक्खियों पर ही निर्भर है वही नरवाई जलाने से जमीन के सभी पोषक तत्व नष्ट हो रहे है कोदो,कुटकी,सहित अन्य मोटे का महत्व बताया व इनकी अनाज की खेती से कुपोषण दूर किया जा सकता है इसके अलावा विभिन्न कृषि यंत्रों की जानकारी व कीटनाशक दवाइयों के बारे
बताया । 


हरी खाद और जैविक खाद को बढ़ावा देना
वरिष्ठ कृषि वैज्ञानिक कृषि विज्ञान केंद्र मझगमा के डॉ वेद प्रकाश सिंह ने रासायनिक खादों के दुष्परिणाम व मिट्टी में पीएच मान के प्रतिशत नियंत्रण पर अम्लीय व छारीय  मिट्टी पर पोषक तत्वों की कमी के बारे में बताया व  विभिन्न फसलों पर परिचर्चा की गई किसानों ने सवाल-जवाब  में खाद बनाने की विधि धान की फसल में कीट प्रबंधन आदि पर चर्चा की उन्होंने कहा कि आज खेती में हरी खाद और जैविक खाद  की आवश्यकता है
जैविक खेती से वैक्टीरियोका आकर्षण
डॉ पी आर पांडेय कृषि तकनीकी सलाहकार सतना ने किसानों को उदबोधन में कहा कि जैविक विधि से खेती ऐसा स्त्रोत है जिसमें अपने आप ही बैक्टीरिया पहुंचकर आकर्षित हो जाते हैं खेत को जैविक बनाए रासायनयुक्त खेती सभी बीमारियों की जड़ है अगर स्वस्थ और जीवित रहना है तो जैविक की ओर जाना होगा ।
कुपोषित हो रही मिट्टी
सेवानिवृत्त उपसंचालक आत्मा परियोजना सतना  के ए.आर त्रिपाठी ने कृषि यंत्र के बारे में किसानों से  चर्चा करते हुए स्प्रिंकलर से सिंचाई करने पर जोर दिया और कहा कि अब समय है जैविक खेती की ओर मुड़ने की सब का  पेट तो भर रहा है पर उससे अंधाधुंध बीमारियां भी बढ़ रही है जमीन  कुपोषित होती जा रही है ।

किसान को आत्मनिर्भर बनने की जरूरत है
 सेवानिवृत्त अपर संचालक कृषि एवं संचालक मंडी बोर्ड  आर एस चर्मकार ने कहा कि  किसान को आवश्यकता है की वह स्वयम ही आत्मनिर्भर बने व खुद  ही खाद और बीजोपचार जैविक विधि से कर सकता है पर वह बाजार पर निर्भर हो चुका है  

इनका किया गया सम्मान
इस दौरान कृषि के क्षेत्र में उत्कृष्ट कार्य करने वाले पद्मश्री बाबूलाल दाहिया,व कृषक रामआसरे सिंह व रामखेलावन सिंह को शाल श्रीफल देकर सम्मानित किया गया ।  कार्यक्रम में  किसान यूनियन ब्लाक अध्यक्ष ठाकुर प्रसाद सिंह ,राघवेंद्र सिंह, रामभद्र सिंह, गजेंद्र सिंह, गया सिंह ,महेश सिंह ,रामकरण सिंह, बाल्मीकि सिंह,मोहनलाल कुशवाहा ,चंद्रशेखर सिंह ,डॉक्टर गुलाब सेन ,धीरेंद्र सिंह ,किसान मित्र ,किसान दीदी व प्रगतिशील किसान बंधु आदि उपस्थित रहे आभार प्रदर्शन सहायक तकनीकी प्रबंधक जे पी सिंह ने किया ।
📝अनुपम दाहिया 
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उचेहरा में आयोजित हुआ 10 वां अखिल भारतीय कवि सम्मेलन, 
मंत्रमुग्ध हुए श्रोता 
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2 अक्टूबर गांधी जी की 150 वी जयंती के मौके पर ऊँचेहरा नगर की उच्चकल्प सांस्कृतिक समिति द्वारा प्रतिवर्ष की भांति इस वर्ष भी अखिल भारतीय कवि सम्मेलन का आयोजन कृषि उपज मंडी प्रांगण ऊँचेहरा में  किया गया चित्रकूट विधायक नीलांशु चतुर्वेदी  के मुख्यातिथ्य में हुए इस आयोजन की अध्यक्षता नागौद के पूर्व विधायक यादवेंद्र सिंह ने की जबकि विशिष्ट अतिथि के रूप में धर्मेश घई ,मदनकान्त पाठक,हरीश ताम्रकार,व श्रीकांत चतुर्वेदी, राजभान सिंह,रणजीत सिंह रहे। राष्टपिता महात्मा गांधी की प्रतिमा पर दीप प्रज्वलित कर कार्यक्रम का शुभारंभ किया गया। समिति के समन्वयक लालबहादुर सिंह ने सभी अतिथियों का परिचय कराते शाल श्री फल से स्वागत किया। कार्यक्रम के मुख्यातिथि श्री नीलांशु चतुर्वेदी ने कहा कि सभी को गांधी के विचारधारा को अपने जीवन मे उतरना चाहिए व सत्य अहिसा के मार्ग पर चलते पिछडो को आगे लाना ही गांधी जी परिकल्पना है , कार्यक्रम का संचालन आदित्य प्रताप सिंह व शशिकांत यादव ने कियालगातार 9 वर्षो से आयोजित हो रहे इस कार्यक्रम के अनुभव उपलब्धियों और आसपास की विशिष्टताओ को समेटते हुए स्मारिका काव्यदशक का विमोचन किया गया ,साथ ही साहित्य के क्षेत्र में विशेष उल्लेखनीय कार्यो के लिए जिले की वरिष्ठ  साहित्यकार श्री मति शुषमा मुनींद्र को शाल श्रीफल व प्रशस्ति पत्र देकर विशिष्ट सम्मान से सम्मानित किया गया । 

कवियों ने बांधा समा भोर तक चला आयोजन
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देशभर से आए ख्यातनाम कवियों, श्रृंगार, हास्य-व्यग्य और वीर रस की कविताओं से 
देश-समाज की विभिन्न तस्वीरों को प्रस्तुत किया। ऐसा समां बांधा कि तड़के भोर अंत तक कवि सम्मेलन को सुनने के लिए जमे रहे और मंत्रमुग्ध रहे । रीवा से आये अमित शुक्ला ने अपने हास्य से श्रोताओं को लोटपोट कर दिया वही सीधी से आये बघेली कवि अंजनी सिंह सौरभ ने मा के ममत्व पर बघेली कविता के माध्यम से प्रस्तुत किया वही बाराबंकी के हास्य के लिए प्रचलित विकास बौखल ने कविता के माध्यम से राजनेताओं को लेकर घेरा व खूब मसखरे किए। व सतना के नाचिकेता  शुक्ल ने वीर रस पर कविता का पाठन किया।कानपुर से आये उर्दू के विशेष शायर माने जाने वाले आलम सुल्तानपुरी ने अपनी शायरी से मन मोह लिया ।वही भोपाल में लाफ्टर फेम के लिए प्रसिद्ध लक्ष्मण नेपाली ने शुरू में लाफ्टर से श्रोताओं को खूब हंसाया पर दूसरी एक कविता मां की ममता  से श्रोताओं के आंखें नम हो उठी।उन्होंने अपनी कविता के माध्यम से कहा कि जब मां को दर्द होता है तो मर्द पैदा होता है। हर चीज का मोल होता है लेकिन मां का कोई मोल नहीं होता तथा बीबी का जन्म दिन याद रहता है मगर मां की बरसी भूल जाते हैं सहित अनेक कविताएं पढ़ी इटावा से आये गीतकार  राजीव राज ने एक गीत अपनी आसाओ को विश्वास बनाकर देखो कर्म की शक्ति को इतिहास बनाकर देखो से माहौल बदल दिया व लोगो ने खूब पसंद किया।साथ ही इसी क्रम में हिंदी हास्य व्यंग के चिर परिचित रचनाकार हरेश चतुर्वेदी ने सरकारी व्यवस्था के खिलाफ नोटबन्दी ,मध्यान्ह भोजन व देश के मौजूदा हालातों पर व्यंग्य  कटाक्ष करते एक से बढ़कर एक  सुनाकर श्रोताओं को ठहाके लगाने के लिए मजबूर कर दिया।लखनऊ की कवित्री  व्यंजना शुक्ला ने राम के गुणगान करते एक कविता बहुत थे रंग जीवन मे मगर भरना नही आया की अद्भुत प्रस्तुति देकर लोगों को रोमांचित कर दिया।  कार्यक्रम का संचालन कर रहे देवास से आये हास्य के लिए प्रचलित शशिकान्त यादव ने  राम के चरित्रो का गुणगान किया व देशभक्ति  गीतों  के माध्यम से स्रोताओं के अंदर तक झकझोर दिया इसके अलावा कई छंद और मुक्तक भी पढ़े । कार्यकम में सफल बनाने के लिए आयोजन समिति के पदाधिकारी कार्यकर्ता कैलाशविहारी परौहा, राजेन्द्र ताम्रकार,बलराम ताम्रकार,एडवोकेट उपेंद्र पांडेय ,उमेष गौतम,विनय ताम्रकार लल्ले,नीरज ताम्रकार,बृजेश शुक्ला,संतोष पयासी, सनत्कुमार ताम्रकर ,लवकुश ताम्रकार,अनुपम दाहिया,डॉ लक्ष्मण कुशवाहा,डॉ दिनेश सिंह,रसीद साह,रजनीश शुक्ला,सुरेश दास गुरु,सियासखि चौधरी,सोनू पांडेय ,राजकुमारी रावत विशेष रूप से उपस्थित रहे।