दीपोत्सव पर तमसो मा ज्योतिर्गमय का मंत्र चरितार्थ करें
___________________________________
दीपावली बृहदारण्यकोपनिषद् (1.3.28) के ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ वाले मंत्र को चरितार्थ करने वाला प्रकाश पर्व है. यह मनुष्य की तबीयत से पत्थर उछालने की सामूहिक कोशिश भी है. अमावस्या की रात में जब आसमान गहन अंधकार से आच्छादित होता है, धरतीवासी मनुष्य माटी के दीयों का गौरव दर्शाकर उस अंधकारा को तोड़ने का हौसला दिखाता है. ये छोटे-छोटे दीपक युगों-युगों से उस विराट शक्ति के ज्वलंत प्रतीक बने हुए हैं जो भीतर के उजाले से बाहर के अंधेरे की परतों को काटती आई है. बेशक हिंदू, जैन, बौद्ध, सिख धर्मों में दीपावली मनाने की शुरुआत से संबंधित अलग-अलग धार्मिक, पौराणिक कथाएं और किंवदंतियां प्रचलित हैं, लेकिन इन सभी के मूल में बुराई पर अच्छाई की विजय, स्वागत, हर्ष और उल्लास की भावना छिपी हुई है.
ऐतिहासिक दृष्टि से देखा जाए तो ‘दीपदानोत्सव’ का वर्णन तीसरी सदी के बौद्धग्रंथ ‘अशोकावदान’ में मिलता है, जिसे सम्राट अशोक ने अपने पूरे सामाज्य में 258 ईसा पूर्व में मनाना शुरू किया था. तीसरी सदी ईसा पूर्व की सिंहली बौद्ध ‘अट्ठकथाओं’ को आधार बनाकर पांचवीं सदी के भिक्खु महाथेर द्वारा रचित ‘महावंस’ में उल्लेख आता है कि तथागत बुद्ध जब अपने पिता राजा शुद्धोदन के आग्रह पर कार्तिक माह की अमावस्या को कपिलवस्तु पधारे तो नगर वासियों ने उनके स्वागत में पूरे नगर को दीपों से सजाया था. लेकिन आज लंकाविजय के पश्चात भगवान राम, माता सीता और भैया लक्ष्मण की अयोध्यावापसी और दीपमालाओं से उनके स्वागत से जुड़ी कथा सबसे अधिक प्रचलित है. यह भारत समेत दुनिया भर में बसे हिंदुओं का सबसे बड़ा त्योहार बन चुका है.
असत्य से सत्य की ओर यात्रा का श्रीगणेश तब तक संभव नहीं है, जब तक इसके मार्ग में अहंकार और वैमनस्य रूपी दुर्धर्ष बाधाएं खड़ी हों. अहंकार के चलते ही आज हम प्रदूषण की चिंता किए बगैर इतने पटाखे चलाते हैं कि मुंबई जैसे महानगर में दीपावली की अगली सुबह धूम्रपान न करने वाला व्यक्ति भी 113 सिगरेट के बराबर धुंआ पीने को मजबूर हो जाता है. धार्मिक वैमनस्य की भावना से ही हम सुप्रीम कोर्ट द्वारा पटाखों की तीव्रता पर लगाई गई पाबंदी की धज्जियां उड़ा देते हैं. क्या हम यह कल्पना भी कर सकते हैं कि जिस तरह की परेशानी इस पटाखेबाजी के चलते मनुष्यों को होती है उससे कहीं अधिक कष्ट पशु-पक्षियों को हो सकता है. वे भी पटाखों और रॉकेटों की जद में आकर मरते हैं, जख़्मी होते हैं. लेकिन हम तो यह सोचकर धन्य हो लेते हैं कि मेरे पटाखे की आवाज पड़ोसी के पटाखे से अधिक धमाकेदार रही!
पटाखों के धमाके सुनकर कुत्ता, बिल्ली, गाय, बैल और बकरी जैसे पालतू जानवरों में भगदड़ मच जाती है. पक्षी घबराहट में अपने-अपने ठिकाने छोड़कर सुरक्षित और शांत जगहों की तलाश में उड़ जाते हैं. अक्सर यह देखा गया है कि पशु-पक्षियों में पटाखों के धुएं का बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है. वे सांस लेने में अड़चन महसूस करते हैं, भय के कारण जहां जगह मिली वहीं दुबक जाते हैं, कई बार खुद पर से नियंत्रण खो देते हैं और पटाखों की लड़ी पर ही जा बैठते हैं, कई दिनों के लिए खाना-पीना छोड़ देते हैं और पालतू व्यवहार छोड़कर चिड़चिड़े भी हो जाते हैं. इनमें से कई छोटे पक्षी तो तेज आवाज न सह पाने के कारण हृदयाघात से जान गंवा देते हैं. यह भी देखने में आता है कि पटाखों की आवाज और धुएं से घबरा कर बाहर घूमने वाले कुत्ते-बिल्लियां, गाय-बैल और दूसरे पशु बिदक कर दीवार से जा टकराते हैं, गड्ढों में जा गिरते हैं, गाड़ियों के नीचे आ जाते हैं, खम्भों से टकरा जाते हैं.
आंकड़े बताते हैं कि दीवाली के आस-पास पशुओं की मौतों में 10-15% का इजाफा हो जाता है. आप भी ध्यान देंगे तो पाएंगे कि लगातार पटाखे फोड़े जाने से आपकी बिल्डिंग के आस-पास घूमते रहने वाले कई कुत्ते-बिल्लियां और पक्षी कुछ समय के लिए गायब हो गए हैं, घरों में पल रहे कुत्ता-बिल्ली उतने स्वच्छंद नहीं दिख रहे, पिंजरे के तोता-मैना खामोशी अख्तियार किए हुए हैं या अधिक ही कर्कश हो उठे हैं. ध्वनि सुनने के मामले में पशु-पक्षी मनुष्य से कहीं अधिक संवेदनशील होते हैं इसलिए उनको तेज आवाज से अधिक तकलीफ होती है. ऐसे में उनकी दिनचर्या बदल जाती है और खाने-पीने का समय भी बदल जाता है और इसका नतीजा यह होता है कि वे गंभीर रूप से बीमार पड़ जाते हैं.
मुंबई के तबेले वालों का अनुभव यह रहा है कि पटाखों की आवाज से घबराकर गाय-भैंसें अपने थन खींच लेती हैं जिससे दीवाली के समय दूध का उत्पादन घट जाता है. कई बार तो वे दुहने भी नहीं देतीं. पटाखों के धुएं से इन पशुओं की श्वांसनलिका में संक्रमण का खतरा भी उत्पन्न हो जाता है. संकट यह भी है कि ध्वनि एवं वायु प्रदूषण से पक्षियों को होने वाले नुकसान की नापजोख करने का भारत में कोई तंत्र ही मौजूद नहीं है इसलिए ठीक-ठीक नहीं बताया जा सकता कि दीवाली के समय या बाद में इसका पक्षियों पर कितना दुष्परिणाम होता है. लेकिन यह तय है कि कबूतर, गौरैया, कौवा, गलगल और तोता जैसे पक्षी बड़ी संख्या में दीवाली के समय स्थलांतर करते हैं और यही वह समय होता है जब हमारे रॉकेटों से टकराकर उनके घायल होने की आशंका अधिक होती है.
दीपावली खेती, व्यापार और सामाजिक जीवन से जुड़ा सार्वजनिक महापर्व है. इसे पूरे हर्षोल्लास के साथ मनाएं, लेकिन ध्यान रहे कि ऐसी जगहों पर पटाखे और रॉकेट न चलाए जाएं, जहां पशु-पक्षियों का बसेरा हो. घर में कुत्ता-बिल्ली पाल रखे हों तो शोर होते वक्त दरवाजे-खिड़कियां बंद रखें, खाना-पीना छोड़ने की स्थिति में उन्हें पशु-चिकित्सक को दिखाएं, उनके खाने-पीने का समय बदल कर देखें और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि घर के अंदर बच्चों को पटाखे बिल्कुल न चलाने दें. घर में पटाखे चलाने पर तो ध्वनि और वायु प्रदूषण के चलते परिजनों के साथ-साथ पालतू पशु-पक्षियों की जान पर भी बन आएगी.
साभार@-
https://abpnews.abplive.in/blog/vijayshankar-chaturvedi-blog-on-diwali-festival-1226734
No comments:
Post a Comment