दीपावली कई पौराणिक मान्यताओं का पर्व है। एक ओर इसमें जहॉ राम के बनबास पूरा कर के अयोध्या वापस आने की कथा जुड़ी है ,वही श्री कृष्ण के इंद्र की पूजा के बजाय गोवर्धन पूजा से जुड़ा एक प्रसंग भी है।किन्तु तीसरी ओर आदिबासी समुदाय भी दीपावली से देव् अनुष्ठानी एकादसी तक अपना जन्त्र मंत्र जगाता है।उधर बौद्ध धर्मावलंबियों का भी एक तर्क है कि दीपावली को दीप जलाने की परम्परा सम्राट अशोक के कलिग बिजय के बाद शुरू हुई। इस तरह यह ऐसा त्यौहार है जिसमे अनेक लोक मान्यताएं समाहित है। पर अब कई परम्पराए धीरे धीरे समाप्त सी होती जा रही है। पर अभी कुछ ग्रामीण क्षेत्रो में देखने को मिल रही है ।
पहले दीपावली से एकादसी तक यादव समुदाय पूरे 10 से 12 दिनों तक उत्सव मनाता था। गाव गाव उनकी टोली डोर पहन, पैरों में घुघरू बाध और हाथ में मोर पंख से बंधी लाठी लेकर बरेदी नृत्य करती । वे बीच बीच में लाठी युद्ध की अपनी पटे बाजी भी दिखाते जाते। यह परम्परा छत्तीशगढ़ तक थी । उसे वहां राउत नाचा नाम से जाना जाता है।
इस नृत्य में वे श्री कृष्ण के प्रेम प्रसंगों य दधी दान से सम्बंधित दिवाली का गीत भी गाते थे। उनका यह सारा अनुष्ठान देवरी जगाना नाम से जाना जाता था। पर कुछ वर्षो से यह पूर्णतः समाप्त सा था।पर अब कुछ वर्षों से पुनः गांवों में एक टोली आने लगी है वह गांवों में पहुचकर अपना देवरी जगाने का अनुष्ठानिक नृत्य दिखाते फिरते हैं।
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