देवीशरण सिंह ग्रामीण की पूण्य तिथि पर स्मरण
आज भी नही भूलते श्री ग्रामीण जी के साथ बीते दिन
✍ बाबूलाल दाहिया
समय कितना जल्दी निकल जाता है कि मालूम ही नही पड़ता?
आज सुबह जैसे ही मोबाइल खोला तो पिछले वर्ष आज के ही दिन का श्री ग्रामीण जी पर लिखा मेरे पोते अनुपम का लेख उनके चित्रों के साथ दिख पड़ा। और सहजता सरलता किन्तु स्वाभिमान से लबरेज ग्रामीण जी की याद ताजी हो गई । फिर तो श्री ग्रामीण जी के साथ बिताए पुराने दिन चल चित्र की तरह ह्रदय तल पर उतरना स्वाभाविक थे।
क्योंकि हमें याद रहे न रहे पर सभी के हाथों में सुशोभित यह मोबाइल सब कुछ याद दिला देता है।
श्री ग्रामीण जी से मेरी पहली भेट शायद 1969, 70,में हुई थी जब वे श्री त्रिभुवन सिह जी ऐडबोकेट के साथ हमारे गाँव आये हुए थे और स्कूल में काव्यपाठ किये थे।
पर मेरा बिधिवत परिचय 1982 में रहिकवारा कवि सम्मेलन से हुआ।फिर तो पिथौराबाद के कवि सम्मेलन में हम लोग हर साल उन्हें बुलाने लगेे।और उनके आग्रह पर मैं भी गोष्ठिओ एवं पाठक मंच के कार्यक्रमो में नागौद आने लगा था। फिर तो उनकी लाटा धूल शिल्पी आदि कविताए लोगो के मन मे ऐसी बसी कि जब कभी ग्रामीण जी आते तो जिन्हें उनका नाम याद न होता तो कहने लगते
,,आज लाटा वाले कवि जी आए है?,,
ग्रामीण जी का साथ मिला तो श्री कालिका त्रिपाठी, डा, कैलास तिवारी रामलाल सिह जी ,बालेंदु मिश्र, रमाकांत मिश्र, अरुण नामदेव अजीतसिंह कुँवर आदि साहित्यकारों की एक मंडली ही मिल गई कुछ दिनों बाद डा, सेवाराम त्रिपाठी जी के आने से नागौद की साहित्यिक गतिविधियों को और ऊँचाई मिली।
फिर शुरू हुवा भृमण तो भोपाल इंदौर गुना मंदसौर सागर जबलपुर चंडीगढ़ गोदरिगवां आदि न जाने कहा कहा प्रलेस एवं हिंदी साहित्य सम्मेलन व कवि सम्मेलनों में मुझे ग्रामीण जी के साथ जाने का अवसर मिला।
1976 के चित्रकूट कहानी रचना शिविर और 77 के कोरवा नाट्य रचना शिविर में तो हम लोग पूरे 10,,10 दिनो तक साथ साथ ही रहे।
ग्रामीण जी की सादगी सहजता को हमारे साहित्यकार किस प्रकार उपयोग कर लेते थे? मुझे अबतक एक वाकया याद है।
दर असल चित्रकूट रचना शिविर में हम लोगो को कहानी लेखन का प्रशिक्षण देने डा, काशीनाथ सिंह जी आए हुए थे और उन्हें शाम के समय दारू चाहिए थी। पर तीर्थ स्थल होने के कारण शाम को दूकान बन्द हो चुकी थी।
आखिर साथियो ने तरकीब निकालीऔर टहलने के बहाने ग्रामीण जी को वहां तक ला सड़क में खड़े कर दूकानदार के निवास में जाकर उससे कहा कि
भैया यह कुर्ता धोती धारी छतीशगढ़ के बिधायक है जो बिना दारू एक दिन भी नही रह सकते। इसलिए किसी तरह एक बोतल का प्रबंध कर दो ।
और फिर हूं ब हूं कुर्ता जाकेट में बिधायक से दिख रहे ग्रामीण जी को दूकानदार कैसे निराश कर सकता था ?
यह अलग बात है ग्रामीण जी को इस योजना का पता तक न चल पाया हो।
इसी तरह गुना में तो कुछ साहित्यकारों ने पीने के बाद एक खाली बोतल चुप चाप ग्रामीण जी के बैग में ही छिपा दिया । ताकि घर मे उन्हें भाभी जी द्वारा डॉट मिले कि अच्छा तो अब यह भी पीने लगे।
वे देखने मे सहज सचमुच के ग्रामीण किन्तु बिचारो से उतने ही परिपक्व। जब गोर्बाचोव ने रूस की नीति को परिवर्तित किया तो उनके पेरास्तोयिका ग्लास्तनोत पर सतना में एक संगोष्टी थी।
बाकी साहित्यकार जहां गोर्बाचोव की प्रसंशा कर रहे थे वही ग्रामीण जी ने अपने अलग तर्क रखते हुए कहा था कि गोर्बाचोव का यह कदम तीसरी दुनिया के देशों के लिए न सिर्फ घातकसिद्ध होगा बल्कि अमरीका को निरंकुश भी बना देगा।
ऐसे सहज सरल किन्तु प्रतिबद्धऔर देश के तमाम साहित्य करो के चहेते थे अपने ग्रामीण जी। पर अब तो उनकी स्मृति ही शेष है।
आज उनकी पूण्य तिथि पर मैं उन्हें सादर नमन करता हूं।🙏🙏
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